Sunday 16 September 2012

नौटंकी

ऑफिस से घर आते हुये अचानक घंटी बज उठी अपने मोबाइल की. मोबाइल उठाया तो देखा अपने ही करीबी का फोन है. थोड़ी सी मुस्कराहट आ गई थके हुए मेरे चेहरे पर और मन ने खुद से ही पूछ लिया, " कि आज इतनी रात को कैसे याद कर लिया इसने ? "

जैसे ही कॉल receive किया , तो हमारे मित्र ने बम  फोड़ दिया। ओये यार तेरे डीजल  की कीमत बाद गई आज , आवाज़ में एक ऐसी उतेजना जैसे की राहुल गाँधी सरकार में शामिल हो गए हो।
मैं बोला, " अच्छा ! ...... कब ? ... साहेब का जवाब आया .... अभी आज रात से 5 रुपए बाद गया बेटा जी .

ओह !  मुह से बरबस ही निकल पड़ा। मैंने बोला यार .... चल ठीक है यह तो होना ही था , पर तू इतना क्यूँ उछल रहा है ? ..... और यह क्या मतलब तेरा कि  " मेरा डीज़ल? " .
अबे तेरी डीज़ल कार है ना। "आवाज़ की उतेजना थोड़ी और बाद गई।" तू आज रात को ही अपनी फुल करवा ले।

अच्छा साले अब समझ में आया तेरी पेट्रोल की गाडी है तो तुझे ख़ुशी हो रही है की सिर्फ डीज़ल ही बड़ा है, मैं बोल उठा !   उधर से हसी की आवाज़ आयी जिसमे थोडा वयंग्य और संतुष्टि का भाव भी था। हो भी क्यूँ ना पेट्रोल कार चलाने वालो ने दर्द भी बहुत झेला है।  .... और इधर उधर की बाते कर और दुआ सलाम कर के हमने फ़ोन काट दिया और अपनी गाडी का रेडियो को चालु कर दिया।

इधर रेडियो का संगीत बज रहा था और उधर दिमाग की calculation . कितना खर्चा और बड़ गया .... महीने का 1800 किलोमीटर ....... 100 लीटर डीज़ल ...... चलो महीने का 500 रुपए और  गये .
और ऑफिस के महीने के 6-7000 और खर्चा बड़  गया ...... चलो कोई बात नहीं, अपनी interlining के रोल की थोड़ी कीमत बड़ा देंगे। बस दिमाग की calculation करते हुए कब घर आ गया की पता ही नहीं चला।
घर के अन्दर कदम रखा ही था, की पापा के कमरे में पड़ोस के aggarwal  साहिब बैठे मिल गये . चर्चा का विषय वही था। मुझे देखते ही अंकल के चेहरे पर एक मुस्कराहट आ गई और बोले " राजू टंकी फुल करवा ली क्या ?
समझ में नहीं आ रहा की यार मेरी टंकी के फुल होने मे  क्या रूचि है? शायद एक वयंग्य है की देख बेटा इस बार तेरी बारी आ गई ( पहले सिर्फ पेट्रोल के दाम जादा बड़ते थे) वैसे अजीब सी बात दीखती  है हर बार जब भी पेट्रोल और डीजल    के रेट revise  होते हैं। हर बार जैसे ही सूचना  मिलती है , पेट्रोल पम्प पर वोह लम्बी लाइन गाड़ियों की। जैसे आज ही सब ले लेंगे पुरे साल का।
अरे भैया, रेट बड़ा है सिर्फ 3-7 रूपए, और टंकी फुल भी करवा लोगे तो बचेगा अधिक से अधिक 200-300 रुपए। इतनी लम्बी गाडी के मालिक और दिल इतना कमज़ोर ? भैया , इस महीने एक पिज्जा कम मंगवा लेना , बच जायेंगे 300 रूपए और सेहत भी रहेगी बरकरार। पर कौन समझाए ?

धकमपेल मच जाती है पम्प पर। सरकार को कोसते हुए, होर्न बजाते हुए, लगे होते है लाइन में , आधा घंटा और खड़े खड़े 1 लीटर तेल बर्बाद कर देते हैं। नौटंकी तो टीवी पर भी चालु हो जाती है। लग जाता है पूरा विपक्ष वाली पार्टियाँ सरकार को कोसने में, जैसे दर्द तो सिर्फ उन्ही के दिल में है लाइन में लगे लोगो के लिए। टीवी के सामने ओ बड़ी बड़ी बाते , वोह लेक्चेर  और दलीले की सर  चकरा जाए। भारत बंद का ऐलान हो जाता है, साथी पार्टियां समर्थन वापस लेने की बाते करती हुई दिखाई देती है फिर बाद में मुकर जाती है अपनी नयी दलीलों के साथ। सबसे मजेदार दलील तो यह होती है इन लोगो की " हम आम आदमी का दर्द समझते हैं और हम सरकार से अनुरोध करते है की आम आदमी को कुछ राहत दी जाए, परन्तु हम सम्प्रदायक ताकतों को रोकने के लिए अभी सरकार  के साथ है "
साइकल के साथ पदर्शन शुरू हो जाता है। चलो इसी बहाने यह नेता लोग साइकल या बैलगाड़ी की सवारी का आनंद भी ले लेते है और हमारी एक दिन की ऑफिस की छुट्टी का भी इंतजाम हो जाता है।
सरकार वाले भी चालु हो जाते है अपनी दलीलों के साथ . और टीवी वालो का TRP भी कुछ सुधर जाता है कुछ दिनों की बासी खबरों के बाद। नहीं तो टीवी पर पर्सारण  क्या करे यह सोचना पड़ता था टीवी वालो को,  असली खबरों के अभाव में। उनके लिए तो यह सूखे के बाद की बरसात होती है बिना किसी चिंता के की आम लोगो की जेब थोड़ी और सुखने लगी है। और आम आदमी भी लग जाता है टीवी के सामने इस उम्मीद में , की शायेद कुछ कम हो जाए रेट।
आम आदमी ऐसे सुनेगा टीवी की चर्चा, चैनेल बदल-बदल कर, जैसे सब विपक्षी दल के और टीवी वाले उसके लिए ही तो चिल्ला रहे है। पर उस बेचारे को क्या मालूम वोह सब उसीकी बेबसी और मजबूरी के गर्म चूल्हे पर अपनी रोटिया सेक रहे है।

जब कोई विपक्षी दल का नेता टीवी पर चिलायेगा और फ़ालतू की दलीले देगा , तो घर में टीवी के सामने बैठा हुआ यही आम आदमी अपनी गर्दन हिला कर ऐसे अनुमोदन करेगा जैसे वोह भी लाइव हो। क्या करे बेचारा, बात तो उसी के दिल की है ,र कोई और कर रहा है टीवी  पर,अपने खुद के लिए नया वोट  बैंक बनाने की कोशिश में।

अगले दिन फिर अखबार वालो की नौटंकी चालु हो जाती है। ओ पूरा का पूरा पहला पन्ना काला हो जाता है सरकार को कोसने में। पर इस सब के पीछे का जो काला सच है वोह सामने नहीं आ पाटा किसी के सामने।
सच यह, की भर्ष्टाचार की वजह से जो अपने देश की currency  कमज़ोर हो रही है, उस वजह से आयात महंगा हो गया है और कीमत बदानी पड़  रही है। मोटे सेठ लोगो की तिजोरी भर जाती है इस वजह से और कीमत आम आदमी चुकाता है। इस सब के पीछे काला धन और बढता हुआ corruption  है पर कौन कहे इन बहरे कानो में।
 इस के बारे में हम जादा नहीं बोलेंगे क्यूंकि इसके लिए हमने केजरीवाल जी को appoint  किया हुआ है।

अंत में नौटंकी जब ख़तम होती है तो 50 पैसे या 1 रुपए की कीमत कम हो जाती है। साथी दल सरकार के वाही वाही लुटने में लग जाते है और विपक्षी दल इसको आम जनता के साथ धोका या मज़ाक बताने में कोई कसर  नहीं छोड़ते। फिर अगले 3-4 दिन तक टीवी वालो की दूकान भी चल निकलती है। सब के सब चीखने और चिल्लाने में लग जाते है और हम यह सोच कर हैरान और परेशान होते रहते है की " ऐसा कब तक? "

और आम आदमी यह सोच कर संतोष कर लेता है हमेशा की तरह कि  " Something is better then nothing"  .
और लग जाएगा जुगाड़ करने में की इस बड़े खर्चे को कैसे अपने बजट में adjest  किया जाए। क्यूंकि नेता की नज़र में वोह तो सिर्फ वोटर है।

वैसे भी " Beggers can,t be chooser "






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